गरीब का केस हो तो आधी रात को भी बुला लो – यह कथन भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सूर्यकांत की उस संवेदनशील और संवैधानिक सोच को दर्शाता है, जिसमें न्याय का केंद्र सबसे कमजोर और वंचित व्यक्ति होता है। उनकी यह टिप्पणी न केवल न्यायपालिका की आत्मा को प्रतिबिंबित करती है, बल्कि यह संदेश भी देती है कि न्याय समय, सुविधा या संसाधनों का मोहताज नहीं होना चाहिए।

गरीब का केस हो तो आधी रात को भी बुला लो – यह कथन भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सूर्यकांत की उस संवेदनशील और संवैधानिक सोच को दर्शाता है, जिसमें न्याय का केंद्र सबसे कमजोर और वंचित व्यक्ति होता है। उनकी यह टिप्पणी न केवल न्यायपालिका की आत्मा को प्रतिबिंबित करती है, बल्कि यह संदेश भी देती है कि न्याय समय, सुविधा या संसाधनों का मोहताज नहीं होना चाहिए।

यह कथन हमें 2015 की उस ऐतिहासिक रात की याद दिलाता है, जब सुप्रीम कोर्ट ने याकूब मेमन मामले में तड़के लगभग तीन बजे अंतिम याचिका पर सुनवाई की थी। उस रात अदालत का खुलना यह सिद्ध करता है कि जब किसी व्यक्ति के जीवन और मौलिक अधिकारों का प्रश्न हो, तब न्यायालय के द्वार कभी बंद नहीं होने चाहिए।

इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित मानवाधिकार रक्षक डॉ. एंथनी राजू का मानना है कि यह टिप्पणी संवैधानिक नैतिकता और समान न्याय के सिद्धांत की सशक्त पुष्टि है। डॉ. एंथनी राजू लंबे समय से गरीब, वंचित और हाशिए पर खड़े लोगों के लिए न्याय की आवाज उठाते रहे हैं। उनका स्पष्ट मत है कि न्याय केवल कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि मानवीय संवेदना और समान अवसर का जीवंत रूप होना चाहिए।

डॉ. राजू के अनुसार, जब देश का मुख्य न्यायाधीश यह कहता है कि वह सबसे गरीब वादी के लिए आधी रात तक भी अदालत में बैठ सकता है, तो यह करोड़ों आम नागरिकों के न्याय तंत्र में विश्वास को मजबूत करता है। यह कथन उस भारत की कल्पना को साकार करता है, जहाँ न्याय अमीर और गरीब के बीच भेद नहीं करता, बल्कि केवल सत्य, संविधान और मानव गरिमा को महत्व देता है।

यह विचार निश्चय ही न्यायपालिका के प्रति जनता के विश्वास को नई ऊर्जा देता है और समान न्याय की दिशा में एक मजबूत नैतिक संदेश देता है।

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